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Saturday, June 29, 2019

नागमती वियोग वर्णन,nagmati viyog varnan

                    नागमती वियोग वर्णन

nagmati viyog khand
nagmati

सूफी साधना में विरह का महत्व अधिक है,प्रेम का दूसरा नाम ही विरह है |जायसी ने आरंभ में ही कहा है।                      " मुहमद कवि जो प्रेम का,ना तन रकत न माँसु।
                 जेह मुह देखा तेइ हँसा,सुना तो आए आसुँ।।"
समस्त सूफी साधना विरह साधना है,ब्रह्म से एकीकरण जब तक नहीं होता विरह ही बना रहता है।समस्त सूफी साधना यात्रा विरह कि यात्रा है।अत: सूफी प्रेमाख्यानों में विरह का ही प्रसार देखा जाता है।पद्मावत में भी विरह कि सघनता है।  जायसी के पद्मावत में  अभिलाषा,चिंता समरण ,गुणकथा ,उद्ववेग,प्रलेप,उन्माद व्याधि,मूछा और मरन आदि विरह कि दशाए देखने को मिलती है।पद्मावत में मुख्य रूप से तीन व्यक्तियों रतनसेन, पदमावती तथा नागमती के विरह का महत्व हैं।परंतु नागमती का विरह वणर्न पदमावती की प्रसिद्धि का आधार है।आचार्य शुक्ल ने भी नागमती विरह वणर्न को हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि घोषित किया है।
इस विरह वणर्न ने शुक्ल जी को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने जायसी को अपनी त्रिवेणी मे स्थान दिया।वस्तुतः पद्मावत के पढने के उपरांत पाठक के मन मे रतनसेन, नागमती, पद्मावती के प्रेम एवं उनके विरह के अतिरिक्त और कोई प्रभाव शेष नहीं रह जाता।
                                          
       नागमती का विरह वरण बारहमासा पद्धति पर आधारित है। बारहमासा लोक गीतों का वह प्रकाश है , जिसमें किसी विरहिणी स्त्री के वर्ष के प्रतेक मास में अनुभूत दुखों तथा हार्दिक मनोवेदना की विवृति पाई जाती है । चूंकि इन गीतों में साल के बारह मासों के दुखों का वर्णन होता हैं । अत इनको बारहमासा की संज्ञा प्राप्त हुई है। जायसी ने पद्मावत में नागमती के वियोग का वर्णन बारहमासा के द्वारा बड़ी ही मार्मिक रीति से किया है।
                          
                                                               पद्मावत मे विरह वेदना गहराई से मन को छुती नजर आती है।नागमती के विरह वणर्न मे प्रेम, आसुँ ,मनुष्य, प्रकृति, कल्पना, यथार्थ आदि सब आपस मे घुल मिल गए है।विरह व्यथा की तृवता इतनी है कि काल्पनिक लगने वाली बातें यथार्थ लगने लगती हैं।
                    सामान्य तौर पर मनुष्य पक्षी से बात नही कर सकता, पर विरह में सब कुछ संभव हैं।नागमती भौरे से सहानुभूति पाने की आशा मे कहती है ।
            "पिय सौ कहेहु संंदेसरा.हे भौरा! हे काग!!
                  सो धनि विरहे जरि मुइ तेहिक धुआं हम्ह.लाग।।
नगमाती प्रेम में इतनी डूबी हुई है कि वह भौरे ,कौवे से बाते करने लगती है।वेदना की तृवता ऎसी है कि वह भौरे कौवे के द्वारा अपना संदेश प्रियतम के पास भेजना चाहती है 

    नागमती का साधारण नारी की तरह वियोग

नागमती विरह दशा में अपना रानीपन  बिल्कुल भूल जाती है ।वह अपने आप को साधारण स्त्री के रूप में देखती है । नागमती का वियोग एक साधारण नारी की तरह वियोग है। वियोग में अगर रानी साधारण नारी की तरह वियोग करती है तो उसका मूल कारण है प्रेम के प्रति अगाध समर्पण ।सुख भौतिक दशा नहीं मानसिक दशा होती है।जो मानसिक रूप से दुखी है उसे दरबारी सुख कैसे भा सकता ह।                             ' पुष्प नखत सिर ऊपर आवा ।
                        हाउ बिनु नाह मंदिर को चावा'।।
इस वियोग में देखा जाए तो दरवारी दर्द नहीं है। पती घर में नहीं है। नागमती चिंता में है कि घर कैसे छाया जाएगा ,चौमासा आ गया है।

                 नागमती विरह का सजीव चित्रण

जायसी ने नागमती का वियोग सजीव तरीके से प्रस्तुत किए है । पद्मावत की कथा लौकिक और अलौकिक दोनों छाप लिए हुए है । यही कारण है कि यह विरह - वणर्न कहीं कहीं अत्युक्तिपूर्ण हो गया है। पर सुक्ल जी के शब्दों में कहें तो इसमें गांभीर्य बना हुआ है। नागमती के दर्द में पूरी प्रकृति रोती जान पड़ती है।
                "कुहकि कुहाकि जस कोयिल रोई।
                               रक्त आंसू घुघची बन बोई।।"
नागमती की आंखो में आंसू नहीं खून टपक रहे है।भौतिक धरातल पर यह बात अस्वभाविक है। दुख का पारावार कुछ ऐसा है जिसमें पूरी पृथ्वी समाई हुई दिखती है। वर्षा होना एक प्राकृतिक घटना है। नागमती वर्षा की बूदों की तुलना आंसू से करने लगती है।
                   "बरसे मघा झकोरी झकोरी।
                            मोई दुइ नैन चुवे जस ओरी।।"
विरह दशा कुछ ऎसी है जिसमें सुखदायक वस्तुएं भी दुखदायक हो जाती है। मानव मन की यह स्वाभविक
प्रकृतिहै। नागमती को चादनी रात भी अच्छी नहीं लगता ।
                  "कातिक सरद चंद उजियारी।
                              जग सीतल हौ विरहे जारी।।"
चदनी रात को देख नागमती का हृदय नहीं मचलता है।
एक विरह मन का यह यथार्थ चित्रण है ।नागमती वियोग में पागल है, उसे चादनी रात में सौंदर्य कहा से दिखेगा । उसे तो रतनसेन की याद आती है ।विरह की अग्नि और भड़क उठती हैं। इसमें दोष चांद का नहीं प्रेम के प्रति समर्पण का है।
                                    जायसी ने मनुष्य की सामान्य भावना को तब और यथार्थ तरीके से दिखाया है ,जब उन्होंने चित्रित किया है कि नागमती सभी के प्रिय मित्र  के आने पर और व्याकुल होती है।उसमे वैषम्य की भावना और मानव सुलभ ढंग से प्रस्फुटित होती है।
             चित्रा मित्र मीन कर आवा ।
                   पपिहा पिऊ पुकरात पवा ।।
               स्वाति बूंद चावल मुख परे ।                                                 समुन्द्र सीप मोती सब भरे।।
नागमती देखती है कि पपिहा के प्रिय पयोधर आ गया ।सीप के मुंह में स्वाति की बूंद पड़ गई पर उसका प्राण प्रिय रत्नसेन नहीं आया । वह बिलखते हुए इस वैषम्य की भावना को उजागर करती है।
  नागमती को गहरी टिस होती है कि सबके प्रिय आ गए फिर तत्नसेन अब तक क्यों नहीं आया ? वियोगावस्था में नागमती का ऐसा सोचना स्वाभाविक है। प्रेम के प्रति अगाध समर्पण और प्रिय के न आने की तड़प
नागमती को ऐसा सोचने पर मजबूर कर देती है।
        

                   सात्विक प्रेम की प्रधानता  

पद्मावत में विरह निरूपण में भोग विलास की प्रधानता नहीं है अपितु सात्विक की प्रधानता है। पद्मावत में सारे पात्र वियोग की आग में जल कर पवन विनम्र तथा सात्विक बन चुके है।उनके मन में गर्व और अहंकार की जगह नहीं है न ही विषय भोगों के प्रति उनके मन में रुचि है ।जिस प्रकार आग में तप कर सोना शुद्ध कुंदन बन जाता है उसी प्रकार नागमती के  रजोगुण तथा तमोगुण विरह की आग में जलकर भस्म हो जाते हैं तथा उसमें केवल सतगुण ही प्रबल रह जाता है।
                " मोहि भोग सो काज न वारी ।
                        सौह दीठि की चाहन हारी।।
नगमती अपने शरीर की जला कर राख कर देना चाहती है ।वह पवन को भी कहती है कि इस राख को चारों ओर उड़ा कर बिखेरे  ताकि यह उस रास्ते जा कर गिरे जहा पर उसका प्रियतम पैर रखकर निकलेगा तथा इस तरह कहीं उसके पैरों का सपर्श हो सकेगा
     "  यह तन जारो छार कहों कि पवन उड़ाव ।
              मकु तेहि मारग उड़ी पैर कंत धरे जह पाव।।"

3 comments:

  1. आपने बहुत अच्छी कोशिश की है ।
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

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